अयोध्या की चमक और पीछे की काली हकीकत — जब रोशनी बने दिखावा
अगर अयोध्या के घाटों पर लगाई गई 26 लाख+ मिट्टी की दीयों की तस्वीरें गौर की जाएँ, तो भव्यता दिखती है — पर उसी आयोजन के बाद वायरल हुआ एक क्लिप जहाँ लोग बचा हुआ तेल और टूटे-फूटे दीये इकट्ठा कर रहे हैं, वह आंख खोल देने वाला है। जहाँ रोशनी है, वहाँ अँधेरा क्यों?
ब्लॉग का ढाँचा — हम किन मुद्दों पर बात करेंगे
- भारत में गरीबी और असमानताएँ — जहाँ “रिकॉर्ड” बन रहा है, वहाँ “रियासत” क्यों पीछे है?
- उत्तर प्रदेश में शिक्षा-संकट — हजारों स्कूल बंद और पहुँच का संकट।
- राजनीतिक दृष्टिकोण — प्रचार बनाम कार्यान्वयन और प्राथमिकताओं की विफलता।
1. गरीबी की कहनी — सुधार हुआ या सिर्फ़ आंकड़ों का खेल?
आंकड़ों की झलक
• $3.00 (2021 PPP) पर: 2011-12 ≈ 27.12% → 2022-23 ≈ 5.25%.
ये संख्याएँ उत्साहपूर्ण दिखती हैं — पर आंकड़ों की दिशा और वास्तविक जीवन के अनुभव हमेशा मेल नहीं खाते। जब एक भव्य आयोजन में लाखों दीये जलते हैं और उसके बाद लोग बचा तेल उठा रहे होते हैं, तो यह संकेत है कि सुधार का अनुभव हर हाथ तक नहीं पहुँचा।
“अँधेरा-रोशनी” का अंतर
सम्भव कारण:
- Near-poor और vulnerable वर्ग अभी भी असुरक्षित: चरम गरीबी घट सकती है, पर मध्यवर्गीय असुरक्षा बनी रहती है।
- सुरक्षा जाल (safety nets) में असमानता: लाभ कुछ को जल्दी मिला, अन्य अभी पीछे।
- स्थानीय स्तर पर संसाधनों की पहुँच: बड़े आयोजन की रोशनी दिखती है, पर रोज़मर्रा के साधन कमज़ोर रहते हैं।
जब आयोजन के दीयों की लहर दिखाई देती है, वहाँ के रोज़मर्रा के संकट अँधेरे में छिपे होते हैं — और वही अँधेरा कभी-कभी बचा तेल उठाने वाले हाथों में नजर आता है।
निष्कर्ष: सुधार हुए हैं — पर असमानता और पहुँच की समस्याएँ अभी भी बरक़रार हैं। केवल आँकड़े देखकर 'सब ठीक है' कह देना ज़रूरी नहीं; जमीन पर बदलाव हर किसी तक पहुँचना चाहिए।
2. उत्तर प्रदेश का शिक्षा-संकट — स्कूल बंद और खोती हुई पहुँच
बंद होते स्कूल
• बाद में राज्य सरकार की योजना के तहत > 27,000 प्राथमिक/उप-प्राथमिक स्कूल “मर्ज/बंद” करने की बातें सामने आईं।
यह निर्णय सबसे ज़्यादा प्रभावित करेगा वे बच्चे जो दलित, पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यक या आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से हैं। स्कूलों की दूरी बढ़ने का मतलब सिर्फ़ यात्रा नहीं — जोखिम और नाममात्र की उपस्थिति में भी गिरावट।
शिक्षा की गुणवत्ता और पहुँच — केवल दीवारें ही नहीं, शिक्षक और संसाधन भी जरूरी
खुला सच है: कई जगह स्कूल मौजूद तो हैं, पर वहाँ योग्य शिक्षक, बुनियादी संसाधन और संरचना का अभाव है। यह खालीपन भविष्य की पीढ़ियों की सामाजिक गतिशीलता को रोकता है।
शिक्षा सिर्फ़ इंफ्रास्ट्रक्चर का नाम नहीं — यह अवसर देता है। जब मौके ही कम हों, तो 'विकास' का तमगा सिर्फ़ दृश्य तक ही सीमित रह जाता है।
निष्कर्ष: यूपी की शिक्षा-नीति और स्कूल बंद करने के फैसलों ने स्पष्ट कर दिया कि स्थानीय पहुँच और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर गंभीर प्रश्न खड़े हैं। भव्य आयोजनों में खर्च दिखता है, पर स्थायी शिक्षा-सुधार की कमी भविष्य के लिए घातक है।
3. राजनीतिक प्रचार बनाम वास्तविक प्राथमिकताएँ
प्रचार और छवि निर्माण — स्वाभाविक, पर सीमाएँ हैं
राजनीतिक नेतृत्व बड़े आयोजनों, रिकॉर्ड-ब्रेकिंग इवेंट्स और फोटो-ओप्स के जरिए अपनी साख बनाना चाहेंगे — पर समस्या तब घटती है जब यही प्रचार नीति और कार्यान्वयन को पीछे छोड़ दे।
स्पष्ट विरोधाभास: एक तरफ़ 26 लाख दीयों का "रिकॉर्ड", दूसरी तरफ़ वायरल क्लिप में लोग बचा तेल इकट्ठा कर रहे — यह दिखावे और वास्तविकता का तिजोरी-फुटाव दिखाता है।
राजनीतिक आलोचना और आरोप
विरोधी पार्टियों और आलोचकों का कहना है कि प्राथमिकता 'दृश्य-परैकृति (visual spectacle)' पर है, न कि दीर्घकालिक सेवाओं पर — जैसे शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य। उदाहरण के तौर पर:
- यूपी में 27,000 से अधिक स्कूलों के मर्ज/बंद होने के दावे।
- इन्फ्रास्ट्रक्चर/निगरानी में कमी के आरोप जिनका परिणाम ज़मीनी असमानताओं में दिखता है।
“कैंसर” जैसे शब्द भावनात्मक होते हैं — पर आलोचना का प्रभाव तब बढ़ता है जब वह तथ्यों और सुधार प्रस्तावों के साथ जुड़ा हो।
किस तरह आगे बढ़ें?
- प्रचार + कार्यान्वयन + निगरानी — तीनों में संतुलन जरूरी है।
- नागरिक समाज और मीडिया को 'विज़ुअल' से आगे देखना होगा — असली आँकड़े, पहुँच और प्रभाव पर ध्यान।
- स्थायी सुधार जैसे शिक्षक-भर्ती, स्थानीय नियोजन और शिक्षा संसाधन पर निवेश अनिवार्य है।
4. निष्कर्ष — जब रोशनी की चमक अर्थ खोने लगे
अयोध्या के दीपोत्सव ने एक जादुई तमाशा पेश किया — पर वही तमाशा अगर जमीन पर बदलाव नहीं लाता तो वह सिर्फ़ एक दृश्य बनकर रह जाता है।
संक्षेप में:
- हां, आँकड़े सुधार की बात करते हैं — पर उन आँकड़ों का लाभ हर हाथ तक नहीं पहुँचा।
- यूपी की शिक्षा-नीतियाँ और स्कूल-बंदियाँ भविष्य के अवसरों पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं।
- प्रचार और छवि तब तक असरदार नहीं जब तक कार्यान्वयन और निगरानी मजबूत न हों।
आपकी जो भावनात्मक प्रतिक्रिया है — वह केवल व्यक्तिगत दर्द नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का संकेत है। जब यह जागरूकता बढ़ेगी, तभी प्रचार के पीछे छिपी असमानताएँ उजागर हो सकती हैं और सुधार का दबाव बनेगा।




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